Wednesday 10 January 2018

सेक्स और समानता


समलैंगिकता और अप्राकृतिक यौन संबंध को अपराध बताने वाली धारा-377 पर सुप्रीम कोर्ट फिर से विचार करेगा। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने आईपीसी की धारा 377 को बरकरार रखने वाले सुप्रीम कोर्ट के साल 2013 के आदेश पर पुनर्विचार करने का फैसला किया है और मामला बड़ी बेंच को रेफर कर दिया है। गौरतलब है कि 2 जुलाई 2009 को नाज फाउंडेशन की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि दो वयस्क यदि आपसी सहमति से एकांत में समलैंगिक संबंध बनाते है तो इसे आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध नहीं माना जाएगा। लेकिन 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को पलट दिया था। सुप्रीम कोर्ट का वह रुख चौंकाने वाला था क्योंकि वह समाज के प्रगतिशील और आधुनिक सोच से मेल नहीं खाता था। पिछले एक-दो दशकों में दुनिया भर के विकसित देशों में सेक्शुअल माइनॉरिटीज को अन्य किसी भी नागरिक के बराबर अधिकार और प्रतिष्ठा मिली है और इसमें जुडिशरी का अहम रोल रहा है। इस संदर्भ में दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला उत्साहवर्धक था, मगर सुप्रीम कोर्ट से निराशा मिली। इसके बावजूद समलैंगिकों और ट्रांसजेंडर समुदाय को उनका अधिकार दिलाने का अभियान जारी रहा, जिसे अब सुप्रीम कोर्ट ने गंभीरता से लिया है। वैज्ञानिक रूप से यह सिद्ध हो चुका है कि कुछ लोगों की सेक्शुअल चॉइस कुदरती तौर पर अलग होती है। कुछ लोगों के जननांग विकसित नहीं होते, सिर्फ इसके लिए समाज उनसे कोई संबंध नहीं रखना चाहता। इन सभी लोगों के यौन आचरण को धर्म और समाज विरुद्ध बताया जाता रहा है और अंग्रेजी राज में उनके खिलाफ कानून भी बना दिए गए। लेकिन गौर से देखें तो ये सामाजिक दुराग्रह कहीं कहीं उत्पादन संबंधों से जुड़े हुए हैं। ज्यादातर धर्मों और मान्यताओं की शुरुआत इंसान के कबीलाई युग से निकलकर खेतिहर युग में आने के साथ हुई। स्त्री-पुरुष संतान पैदा करके कृषि कार्य के लिए मानव संसाधन उपलब्ध कराते हैं, लिहाजा संतानोत्पत्ति को सभी धर्मों का एक मूल तत्व मान लिया गया। सेक्शुअल माइनॉरिटीज के लोग संतान पैदा करने में समर्थ नहीं थे, यानी वे उत्पादन प्रक्रिया से बाहर थे, और यह डर भी था कि उनके संपर्क में आकर कहीं और लोग भी संतानोत्पत्ति के पवित्र कर्तव्य से विमुख हो जाएं, इसलिए हर जगह उन्हें तिरस्कृत किया गया। जब-तब वे बधाइयां लेने आते रहे, या किसी के सेक्स स्लेव बनकर जीते रहे। लेकिन अब समय के साथ उत्पादन संबंध भी बदल गए हैं। व्यक्ति की निजता और स्वतंत्रता अभी सबसे बड़ा सामाजिक मूल्य है। दो व्यक्ति बिना किसी को नुकसान पहुंचाए, आपसी रजामंदी से अपने निजी दायरे में कुछ भी करें, समाज और कानून को इस पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए

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