कैंब्रिज एनालिटिका का विवाद
उठा तो एक एक कर
ऐसे रहस्योद्घाटन हो
रहे हैं, जिनके
बारे में हमने
कभी सोचा तक नहीं था।
ये रहस्योद्घाटन अमेरिका
में राष्ट्रपति डोनाल्ड
ट्रंप के चुनाव
में सोशल मीडिया
यूजर्स के डेटा के अनधिकृत
इस्तेमाल तक सीमित
नहीं हैं। खुद
भारत में भी भाजपा और
कांग्रेस, दोनों से
जुड़ी बहुत-सी असुविधाजनक सूचनाएं सामने
आई हैं, जिनका
मर्म यह है कि हमारे
राजनैतिक दल भी
अपने राजनैतिक हितों
के लिए ऐसी संस्थाओं की मदद लेते रहे
हैं, जिनका रिकॉर्ड
संदिग्ध है। कैंब्रिज
एनालिटिला के जिस
पूर्व कर्मचारी क्रिस्टोफर
विली ने सारे मामले का
रहस्योद्घाटन किया था,
उसने अब कहा है कि
इस कंपनी ने
कांग्रेस के साथ
भी काम किया
था। उधर, कांग्रेस
अध्यक्ष राहुल गांधी
ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी के नमो ऐप्प पर
आरोप लगाया है
कि वह भी लोगों का
अनधिकृत डेटा इकट्ठा
करने में जुटा
है। बेहतर हो
कि सभी संबंधित
पक्ष समय रहते
निजता और लोकतंत्र
के साथ खिलवाड़
की ऐसी प्रक्रियाओं
पर अंकुश की
कोई सूरत निकालें।
कैंब्रिज एनालिटिका पर आरोप है कि
उसने कैंब्रिज विविद्यालय
के एक प्रोफेसर
द्वारा बनाए गए एप का
इस्तेमाल फेसबुक यूजर्स
के डेटा का अनधिकृत राजनैतिक इस्तेमाल
करने के लिए किया। हालांकि
इस ऐप्प के सिर्फ 25 लाख यूजर
थे, लेकिन इसकी
मदद से कैंब्रिज
एनालिटिका ने इन
यूजर्स के मित्रों
के डेटा भी इकट्ठे कर
लिए और इस तरह उसकी
पहुंच पांच करोड़
यूजर्स तक जा पहुंची। अगर कोई इतनी बड़ी
संख्या में यूजर्स
तक पहुंचने और
सोशल मीडिया मैसेजिंग
के जरिए उनका
राजनैतिक मानस बदलने
में सक्षम हो
जाए तो चुनाव
परिणाम बदल सकते
हैं। अमेरिका में
सभवत: यही हुआ जब अमेरिका
के पहले ‘‘फेसबुक
राष्ट्रपति’ के रूप
में डोनाल्ड ट्रंप
अनपेक्षित रूप से
हिलेरी क्लिंटन को
हराकर चुनाव जीत
गए जबकि हिलेरी
की सभाओं में
उमड़ने वाली भीड़
तथा उनके भारी-भरकम चुनाव
फंड को देखते
हुए ऐसा बिल्कुल
संभव नहीं लगता
था। कुछ-कुछ यही काम
भारत में भी हुआ जब
विभिन्न चुनावों में
कांग्रेस, भाजपा और
जनता दल (यूनाइटेड)
को लाभान्वित करने
की बात सामने
आई। मतदाता के
मानस को प्रभावित
करना आज उतना मुश्किल नहीं रह गया है,
जितना वह पहले हुआ करता
था। पहले राजनैतिक
दलों के चुनाव
अभियान ज्यादातर चुनाव
सभाओं, विज्ञापनों और
जन-संपर्क तक
सीमित रहते थे।
आज जबकि मोबाइल
फोन की बदौलत
सोशल मीडिया चौबीसों
घंटे आपके साथ
है, राजनैतिक दलों
को पारंपरिक माध्यमों
पर निर्भर रहने
की जरूरत नहीं
है, और न ही उतना
लंबा-चौड़ा, राष्ट्रव्यापी
खर्च करने की।
वे केंद्रीय रूप
से, सुनियोजित ढंग
से सोशल मीडिया
अभियान चलाते रह
सकते हैं, और सशरीर हर
जगह न जाने के बावजूद
गांव-गांव, शहर-शहर तक
मतदाता के पास पहुंच सकते
हैं। कैंब्रिज एनालिटिका
जैसी कंपनियां यह
करती हैं कि उनके पास
यूजर्स का जो डेटा आता
है, उसके आधार
पर वे पता लगा लेती
हैं कि किस यूजर की
राजनैतिक विचारधारा या झुकाव
किधर है, उसकी
उम्र क्या है,
लिंग क्या है,
आर्थिक स्तर कैसा
है, उसके मित्रों
में कौन-कौन हैं, वह
किस तरह की सामग्री (कंटेंट) पसंद
करता है, उसके
रिश्ते किस-किससे
हैं, वह शाकाहारी
है, या मांसाहारी,
किस धर्म या जाति में
हैं आदि-आदि।इस
जानकारी के आधार पर वे
हर यूजर को कस्टमाइज्ड सामग्री दिखाते
हैं यानी ऐसा
विशिष्ट कंटेंट जो
उनको ज्यादा अपील
करे। जब यह एक सिलसिलेवार
अभियान का रूप ले लेता
है, तो धीरे-धीरे मतदाता
का मानस बदलने
लगता है। यह कवायद तब
गैर-कानूनी हो
जाती है, जब कोई एजेंसी
यूजर को जानकारी
दिए बिना उसका
डेटा एक्सेस कर
रही होती है।
कैंब्रिज एनालिटिका ने लोगों
की निजता के
विरु द्ध अपराध
तो किया ही,
इस प्रक्रिया में
फेसबुक को भी इस्तेमाल कर लिया।
इस लिहाज से
फेसबुक अपराध में
सीधे-सीधे सहभागी
न होते हुए
भी अपनी लापरवाही
के कारण विवाद
के केंद्र में
आ गई। यह मामला महज
साइबर अपराध या
निजता के हनन की श्रेणी
में नहीं रहा
बल्कि उससे कहीं
आगे जाकर लोकतांत्रिक
प्रक्रियाओं पर कुठाराघात
की श्रेणी में
आ गया है। इसने हम
सबकी आंखें खोल
कर इस रहस्य
का पर्दाफाश किया
है कि कोई एजेंसी, राजनैतिक दल
और कुछ चतुर
डेटा वैज्ञानिक चाहें
तो पूरी की पूरी लोकतांत्रिक
प्रक्रिया को बेमानी
बना सकते हैं।
कोई दल ऐसा करने में
कामयाब हो जाता है, तो
इसे सिर्फ उसका
तकनीकी ज्ञान मात्र
मानकर प्रशंसा का
पात्र नहीं माना
जा सकता बल्कि
उसे तकनीकी माध्यमों
से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं
के साथ खिलवाड़
करने के अपराध
में कठघरे में
खड़ा किया जाना
चाहिए। जहां तक यूजर का
सवाल है, उसमें
इतनी जागरूकता तो
होनी जरूरी है
कि वह तथा उसकी सूचनाएं
अनजान व्यक्तियों द्वारा
इस्तेमाल न कर
ली जाएं। जब
भी वह कोई ऐप्प, वेबसाइट
या सेवा इस्तेमाल
करता है, तब एक अनुबंध-पत्र पर
उसकी मंजूरी ली
जाती है। ज्यादातर
लोग आंख मूंदकर
मंजूरी दे देते हैं। इस
पर गौर करना
जरूरी है। अंधाधुंध
उसे सब कुछ एक्सेस करने
की अनुमति क्यों
दी जाए? अब कैंब्रिज ने जैसा ऐप्प बनाया
वह तो आपराधिक
कृत्य में संलग्न
था, और उसमें
अपने डेटा का दुरु पयोग
होने से रोकने
के लिए शायद
यूजर कुछ भी नहीं कर
सकते थे क्योंकि
उन्हें इस बात का पता
ही नहीं था कि किसी
मित्र द्वारा इस्तेमाल
किया जाने वाला
ऐप्प उनके डेटा
को भी गुपचुप
इकट्ठा कर रहा है। लेकिन
अगर आप अपने सोशल मीडिया
प्रोफाइल की सेटिंग्स
पर नजर डालेंगे
तो पाएंगे कि
वहां पर आपको अनधिकृत डेटा एक्सेस
से बचाने के
लिए कई विकल्प
उपलब्ध हैं। आप चाहें तो
अपनी सामग्री को
देखे जाने का अधिकार सिर्फ
अपने मित्रों तक
सीमित रख सकते हैं। इन
सेटिंग्स का उपयोग
जरूर करें। हालांकि
हमारे देश के साइबर कानून
स्पष्ट और कड़े हैं, लेकिन
सोशल मीडिया एक
नया माध्यम है,
और उसमें समय-समय पर
ऐसे नये पहलू
सामने आते रहेंगे
जो कानूनों में
संशोधन की जरूरत
को रेखांकित करते
रहेंगे। सोशल मीडिया
को सुरक्षित, निजता
को अपरिहार्य तथा
लोकतंत्र को बाहरी
हस्तक्षेप से मुक्त
बनाए रखना बेहद
जरूरी है।
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