उम्मीद की जाती
है कि कोई भी समाज
सभ्य होने के साथ-साथ
अपने बीच के उन तबकों
के जीवन की स्थितियां सहज और सुरक्षित बनाने के
लिए तमाम इंतजाम
करेगा, जो कई वजहों से
जोखिम या असुरक्षा
के बीच जीते
हैं। लेकिन इक्कीसवीं
सदी का सफर करते हमारे
बच्चे अगर कई तरह के
खतरों से जूझ रहे हैं
तो निश्चित रूप
से यह चिंताजनक
है और हमारी
विकास-नीतियों पर
सवाल उठाता है।
यों बच्चों के
खिलाफ होने वाले
अपराध लंबे समय
से सामाजिक चिंता
का विषय रहे
हैं। लेकिन तमाम
अध्ययनों में इन
अपराधों का ग्राफ
बढ़ने के बावजूद
इस दिशा में
शायद कुछ ऐसा नहीं किया
जा सका है, जिससे हालात
में सुधार हो।
हालांकि सामाजिक संगठनों
से लेकर सरकार
की ओर से इस मुद्दे
पर अनेक बार
चिंता जताई गई,
समस्या के समाधान
के लिए ठोस कदम उठाने
के दावे किए
गए। मगर इस दौरान आपराधिक
घटनाओं के शिकार
होने वाले मासूमों
की संख्या में
कमी आने के बजाय और
बढ़ोतरी ही होती गई। राष्ट्रीय
अपराध रिकार्ड ब्यूरो
की ताजा रिपोर्ट
के मुताबिक 2015 के
मुकाबले 2016 में बच्चों
के प्रति अपराध
के मामलों में
ग्यारह फीसद की बढ़ोतरी दर्ज
की गई। इनमें
भी कुल अपराधों
के आधे से ज्यादा सिर्फ
पांच बड़े राज्यों-
उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र,
मध्यप्रदेश, दिल्ली और
पश्चिम बंगाल में
हुए। सबसे ज्यादा
मामले अपहरण और
उसके बाद बलात्कार
के पाए गए।
जाहिर है, कमजोर
स्थिति में होने
की वजह से बच्चे पहले
ही आपराधिक मानसिकता
के लोगों के
निशाने पर ज्यादा
होते हैं। फिर
व्यवस्थागत कमियों का
फायदा भी अपराधी
उठाते हैं। विडंबना
यह है कि चार से
पंद्रह साल उम्र
के जो मासूम
बच्चे अभी तक समाज और
दुनिया को ठीक से नहीं
समझ पाते, वे
आमतौर पर मानव तस्करों के जाल में फंस
जाते हैं। इनमें
भी लड़कियां ज्यादा
जोखिम में होती
हैं। एक आंकड़े
के मुताबिक गायब
होने वाले बच्चों
में सत्तर फीसद
से ज्यादा लड़कियां
होती हैं। अंदाजा
लगाना मुश्किल नहीं
है कि बच्चों
को मानव तस्करी
का शिकार बनाने
वाले गिरोह छोटी
बच्चियों को देह
व्यापार की आग में धकेल
देते हैं। घरेलू
नौकरों से लेकर बाल मजदूरी
के ठिकानों पर
बेच दिए जाने
के अलावा यह
लड़कियों के लिए दोहरी त्रासदी
का जाल होता
है। इन अपराधों
की दुनिया और
उसके संचालकों की
गतिविधियां कोई दबी-ढकी नहीं
रही हैं। लेकिन
सवाल है कि हमारे देश
में नागरिकों की
सुरक्षा में लगा व्यापक तंत्र
अबोध बच्चों को
अपराधियों के जाल
से क्यों नहीं
बचा पाता! आपराधिक
मानसिकता वालों के
चंगुल में फंसने
से इतर मासूम
बच्चों के लिए आसपास के
इलाकों के साथ उनका अपना
घर भी पूरी तरह सुरक्षित
नहीं होता।
हाल ही में
सुप्रीम कोर्ट में
पेश आंकड़ों के
मुताबिक 2016 में ही
देश भर में करीब एक
लाख बच्चे यौन
अपराधों के शिकार
हुए। बच्चों के
खिलाफ अपराधों में
यौन शोषण एक ऐसा जटिल
पहलू है, जिसमें
ज्यादातर अपराधी पीड़ित
बच्चे के संबंधी
या परिचित ही
होते हैं। लोकलाज
की वजह से ऐसे बहुत
सारे मामले सामने
नहीं आ पाते। फिर आमतौर
पर ऐसे आरोपी
बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क
का फायदा उठाते
हैं और उन्हें
डरा-धमका कर चुप रहने
पर मजबूर कर
देते हैं। जाहिर
है, बच्चों के
खिलाफ होने वाले
अपराधों के कई पहलू हैं,
जिनसे निपटने के
लिए कानूनी सख्ती
के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता के
लिए भी अभियान
चलाने की जरूरत
है। अक्सर हम
देश के विकास
को आंकड़ों की
चकाचौंध से आंकते
हैं। लेकिन अगर
चमकती तस्वीर के
पर्दे के पीछे अंधेरे में
अपराध के शिकार
बच्चे कराह रहे
हों, तो उस विकास की
बुनियाद मजबूत नहीं
हो सकती!
No comments:
Post a Comment