Friday, 14 September 2018

दागियों पर दबिश


जन प्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक मामलों को जल्द से जल्द से निपटाने के लिए विशेष अदालतों के गठन में सुस्ती बरते जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताई है। बुधवार को एक मामले की सुनवाई करते हुए उसने विभिन्न राज्यों के मुख्य सचिवों और हाईकोर्ट के रजिस्ट्रारों से 10 अक्टूबर तक यह बताने को कहा है कि ये अदालतें क्यों नहीं बनाई जा रही हैं/ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुआई वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने यह भी जानना चाहा है कि 11 राज्यों में जो 12 विशेष अदालतें गठित की गई हैं, वे काम भी कर रही हैं या नहीं/ खंडपीठ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट विशेष फास्ट ट्रैक अदालतों के कामकाज की निगरानी करेगा। याद रहे, सुप्रीम कोर्ट ने 14 दिसंबर 2017 को केंद्र सरकार को आदेश दिया था कि सांसदों-विधायकों से जुड़े मामलों की तेज सुनवाई के लिए स्पेशल कोर्ट बनाए जाएं। यह भी कि इन विशेष अदालतों में 1 मार्च 2018 तक काम शुरू हो जाना चाहिए। लेकिन सचाई यह है कि ज्यादातर राज्यों में ये फास्ट ट्रैक कोर्ट अब तक जमीन पर नहीं उतर पाए हैं। भाषणों में सारे ही राजनेता देश की राजनीति को अपराधमुक्त करने की बात करते हैं लेकिन जब इसके लिए ठोस कदम उठाने की बारी आती है तो उन्हें सांप सूंघ जाता है। न्यायपालिका की पहल से ही राजनीति के अपराधीकरण में कुछ कमी आई है, या आने की उम्मीद जागी है। 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने जन प्रतिनिधित्व कानून की उस धारा को असंवैधानिक करार दिया था, जिसके तहत निचली अदालतों द्वारा दोषी ठहराए गए सांसद-विधायक अपने पद के लिए तुरंत अयोग्य नहीं घोषित होते थे। यह प्रावधान दोषियों को हाई कोर्ट में अपील करने के लिए तीन महीने की मोहलत देता था, जहां से स्टे मिलने पर ये पद पर बने रह सकते थे। मगर सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के बाद किसी भी अदालत में दो साल से ज्यादा की सजा पाने वाले जन प्रतिनिधि अपने पद पर रहने और सजा की अवधि तक चुनाव लड़ने के अयोग्य हो गए। लालू यादव और स्व. जयललिता जैसी लीडर पर इसका सीधा असर पड़ा। उस फैसले के समय ही यह महसूस किया गया कि नेताओं के खिलाफ मामले बहुत धीरे चलते हैं और फैसला आने तक वे काफी लंबी राजनीतिक पारी खेल चुके होते हैं। इसी को ध्यान में रखकर राज्यों में विशेष अदालतें बनाने का निर्णय किया गया। लेकिन इससे भी बात बनती नहीं दिख रही। दरअसल यहां स्थानीय पुलिस और अभियोजन पक्ष का काम काफी चुनौतीपूर्ण हो जाता है क्योंकि उन्हें जनसमर्थन वाले काफी ताकतवर लोगों के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल करके मुकदमा चलाना पड़ता है। ऐसे में प्राय: मामले का ठिठक कर रह जाना ही स्वाभाविक होता है। अभी सुप्रीम कोर्ट के संकल्प को देखते हुए बात कुछ आगे बढ़ती हुई सी लग रही है, लेकिन समस्या तभी सुलझेगी जब राजनीतिक नेतृत्व पर नागरिक दायरे की ओर से लगातार दबाव बनाए रखा जाए।

No comments:

Post a Comment

ବୁଢ଼ୀ ଅସୁରୁଣୀ

  ଶୈଶବରେ ଆମମାନଙ୍କ ଭିତରୁ ଯେଉଁମାନେ ସେମାନଙ୍କ ଜେଜେ ମା ’ ବା ଆଈମାନଙ୍କ ଠାରୁ ବୁଢ଼ୀ ଅସୁରୁଣୀ ଗପ ଶୁଣିଛନ୍ତି , ସେମାନେ ଅନେକ ସମୟରେ ଚକିତ ହେ...