दागी नेताओं को
लेकर सुप्रीम कोर्ट
का ताजा फैसला
भारतीय लोकतंत्र के
रिसते हुए जख्मों
पर मरहम लगाने
जैसा है। कोर्ट
ने कहा है कि दागी
विधायक, सांसद और
नेता आरोप तय होने के
बाद भी चुनाव
लड़ सकते हैं,
लेकिन चुनाव प्रचार
के दौरान उन्हें
खुद पर निर्धारित
आरोप भी प्रचारित
करने होंगे। पिछले
दिनों याचिका दायर
कर मांग की गई थी
कि गंभीर अपराधों
में, यानी जिनमें
5 साल से अधिक की सजा
संभावित हो, यदि व्यक्ति के खिलाफ
आरोप तय होता है तो
उसे चुनाव लड़ने
से रोक दिया
जाए। अदालत ने
कहा कि केवल चार्जशीट के आधार पर जनप्रतिनिधियों
पर कार्रवाई नहीं
की जा सकती।
लेकिन चुनाव लड़ने
से पहले उम्मीदवारों
को अपना आपराधिक
रिकॉर्ड चुनाव आयोग
के सामने घोषित
करना होगा। अदालत
ने इस मामले
में एक गाइडलाइन
जारी की, जिसके
अनुसार राजनीतिक दल
अपने उम्मीदवारों के
नामांकन के बाद कम से
कम तीन बार प्रिंट और
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के
जरिए उनके आपराधिक
रिकॉर्ड मतदाताओं के
सामने रखेंगे। सभी
पार्टियां वेबसाइट पर दागी जनप्रतिनिधियों के ब्यौरे
डालेंगी ताकि वोटर
अपना फैसला खुद
कर सकें। चीफ
जस्टिस दीपक मिश्रा
की अध्यक्षता वाली
तीन जजों की बेंच ने
कहा कि वक्त आ गया
है कि संसद कानून बनाकर
आपराधिक रिकॉर्ड वालों
को जनप्रतिनिधि न
बनने दे। सुप्रीम
कोर्ट ने अपनी राय स्पष्ट
कर दी है कि उसका
यह तय करना कि कौन
चुनाव लड़े कौन
नहीं, जनतंत्र के
मूल्यों पर आघात होगा। सबसे
आदर्श स्थिति यही
होगी कि मतदाताओं
को इतना जागरूक
बनाया जाए कि वे खुद
ही आपराधिक छवि
वाले कैंडिडेट को
रिजेक्ट कर दें। लेकिन जब
तक ऐसा नहीं
होता, तब तक ऐसे लोगों
को जनप्रतिनिधि न
बनने देने की जिम्मेदारी संसद की है। बहरहाल,
सुप्रीम कोर्ट ने
इस बार जो उपाय सुझाए
हैं, उनका वाजिब
असर चुनाव आयोग
ही सुनिश्चित कर
सकता है। राजनीतिक
दल अपनी साइटों
पर और मीडिया
में अपने उम्मीदवारों
का आपराधिक रिकार्ड
डालने के मामले
में खानापूरी करेंगे
तो जनता तक इसकी जानकारी
नहीं पहुंच पाएगी।
ऐसे में चुनाव
आयोग को इन सभी कामों
के लिए कुछ ठोस मानक
तय करके उन पर अमल
सुनिश्चित करना होगा।
कई दागी नेता
आज कानून-व्यवस्था
के समूचे तंत्र
को प्रभावित करने
की स्थिति में
हैं। उनके खिलाफ
मामले थाने पर ही निपटा
दिए जाते हैं।
किसी तरह वे अदालत पहुंच
भी जाएं तो उनकी रफ्तार
इतनी धीमी रखी
जाती है कि आरोप तय
होने से पहले ही आरोपी
की सियासी पारी
निपट जाती है।
इसका हल फास्ट
ट्रैक कोर्ट के
रूप में खोजा
गया, लेकिन कई
राज्यों में ये कोर्ट बने
ही नहीं और जहां बने
भी वहां कागजों
से नीचे नहीं
उतर पा रहे हैं। ऐसे
में सुप्रीम कोर्ट
की कोशिशें खुश
तो करती हैं
लेकिन यह खुशी ज्यादा दिन
टिक नहीं पाती।
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