सुप्रीम कोर्ट ने
हाल के अपने एक फैसले
में कहा कि दुष्कर्म और तेजाब
पीड़ितों को मुआवजा
देने की योजना
में नाबालिग लड़कों
और पुरुषों को
भी शामिल किया
जाए। यह निर्णय
‘जेंडर इक्वलिटी’ की
दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है। बीते दिनों
राजस्थान के एक
प्रतिष्ठित बोर्डिंग स्कूल की
ग्यारहवीं कक्षा के
छात्र का सीनियर
विद्यार्थियों ने शारीरिक
शोषण किया, जिसकी
शिकायत उसके अभिभावकों
ने की। मगर पुलिस में
रिपोर्ट दर्ज करवाने
के बावजूद हर
स्तर पर इस मामले को
दबाने का प्रयास
किया गया। राज्य
के मीडिया ने
इस मुद्दे को
लगातार एक महीने
तक उठाया। बावजूद
इसके, समाज और प्रशासन के स्तर पर एक
चुप्पी सी छाई रही, जैसे
यह कोई बड़ी
सामान्य सी बात हो।
•सोच में गड़बड़ी
सर्वे बताते हैं
कि लड़कियों के
यौन शोषण के मामले में
पुलिस अब जल्दी
सक्रिय हो जाती है। लेकिन
लड़कों के ठीक ऐसे ही
मामले में कुछ खास ध्यान
नहीं दिया जाता।
सच तो यह है कि
लड़कों के साथ हो रहे
इन यौन अपराधों
के लिए कानूनी
पहलू से कहीं ज्यादा सामाजिक
सोच जिम्मेदार है।
समाज मानकर चलता
है कि यौन शोषण तो
लड़कियों का ही
हो सकता है।
यह बात आमतौर
पर दिमाग में
नहीं आती कि इसका शिकार
लड़के भी होते हैं। महिला
एवं बाल कल्याण
मंत्रालय की सन्
2007 की रिपोर्ट बताती
है कि देश में 52.22 प्रतिशत बच्चों
को यौन शोषण
के एक या अधिक रूपों
का सामना करना
पडा, और इनमें
से 52.94 प्रतिशत लड़के इसका
शिकार हुए। लेकिन
यह खासा हैरान
करने वाला तथ्य
है कि इस सत्य के
उजागर होने के बाद भी
न तो इस संबंध में
विधायी संस्थाओं में
कोई चर्चा की
गई और ना ही किसी
शोध पर जोर दिया गया।
कुछ समय पूर्व
हुए एससीईआरटी (स्टेट
काउंसिल ऑफ एजुकेशनल
रिसर्च एंड ट्रेनिंग)
हरियाणा के सर्वे
में खुलासा हुआ
है कि लड़कियों
के मुकाबले लड़के
यौन शोषण के ज्यादा शिकार
हो रहे हैं।
यह कोई हैरान
करने वाला तथ्य
नहीं बल्कि प्रयासपूर्वक
सालों से छिपाया
जाने वाला नंगा
सच है, जिसे
निरंतर ‘मिथक’ कहकर
झुठलाया जा रहा है। आमतौर
पर लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते। सोचते
हैं कि यह कोई बड़ी
बात नहीं है।
इससे कोई खास नुकसान नहीं
होता। इंडियन जर्नल
ऑफ साइकेक्ट्री ने
2015 में एक लेख
प्रकाशित किया था,
जिसमें कुछ यौन पीड़ितों का उल्लेख
किया गया था। इसमें एक
प्रसंग 9 वर्ष के
पीड़ित बालक का था। उसके
पिता ने अपने बेटे के
लिए मनोवैज्ञानिक परामर्श
का विरोध करते
हुए दलील दी थी कि
इससे न तो वह अपना
कौमार्य खोएगा, न
ही गर्भवती होगा।
उसे एक मर्द की तरह
व्यवहार करना चाहिए,
न कि किसी डरपोक इंसान
की तरह।
यह सोच एक
व्यक्ति की नहीं,
अमूमन संपूर्ण समाज
की है। सवाल
यह है कि अगर शारीरिक
शोषण से किसी का कौमार्य
भंग नहीं होता
तो क्या इसे
अपराध नहीं माना
जाएगा? यौन शोषण
के शिकार पुरुषों
को भी महिलाओं
के समान ही पीड़ा और
मानसिक आघात झेलना
पड़ता है। इसके
साथ ही उन्हें
समाज द्वारा मजाक
बनाए जाने का डर भी
सताता है, जो कई बार
उन्हें अवसाद में
धकेल देता है।
जिस तरह लड़कियां
अपने घर में असुरक्षित हैं, वैसे
ही छोटे लड़के
भी यह खतरा झेलते हैं।
कई बार तो उन्हें अपने
रिश्तेदारों के ही
हमले का शिकार
होना पड़ता है।
स्कूलों में उन्हें
शिक्षकों, अन्य कर्मचारियों
या सीनियर छात्रों
से खतरा रहता
है। पर हादसा
होने पर भय या संकोच
के मारे वे
लंबे समय तक किसी से
कुछ नहीं कहते
और अंदर ही अंदर घुटते
रहते हैं। कई बच्चे तो
समझ ही नहीं पाते कि
उनके साथ हो क्या रहा
है। इसका उनके
व्यक्तित्व पर बहुत
गहरा प्रभाव पड़ता
है। ऐसे बच्चे
आगे चलकर काफी
कुंठित और असहज हो जाते
हैं। कुछ बच्चे
अपने परिवार में
इस तरह की बात बताते
भी हैं, तो उन्हें चुप
रहने के लिए कहा जाता
है।
2010 में ईटी-साइनोवेट
ने देश के सात शहरों
में एक सर्वे
कराया जिसमें बंगलुरु
के 32 प्रतिशत पुरुषों
ने अपने साथ
यौन उत्पीड़न की
बात मानी। पुरुष
यौन उत्पीड़न को
हल्के तौर पर लेने वालों
को पता होना
चाहिए कि 2015 में
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पाया कि
भारतीय जेलों में
खुदकुशी की बड़ी वजह साथी
कैदियों द्वारा किया
गया दुष्कर्म है।
मानवाधिकारों के लिए
काम करने वाली
संस्था ‘वर्ल्ड विजन
ऑफ इंडिया’ ने
साफ कहा है कि भारत
में हर साल यौन शोषण
के जितने भी
मामले सामने आते
हैं, उनमें लड़के-लड़कियों की संख्या
करीब-करीब बराबर
ही होती है।
पुरुषों को यौन शोषण से
बचाने या पीड़ितों
को परामर्श देने
के लिए देश भर में
करीब 40 गैर सरकारी
संगठनों ने मिलकर
एक हेल्पलाइन शुरू
की है।
• समान हो कानून
देश में जेंडर
न्यूट्रल कानून की
दरकार है। जस्टिस
वर्मा कमिटी ने
बलात्कार कानून को
लिंग-निरपेक्ष बनाने
की अनुशंसा की
थी। पॉक्सो कानून
में जो हालिया
बदलाव हुए वे
12 साल से कम उम्र के
बच्चे के साथ दुष्कर्म में मौत की सजा
का प्रावधान बिना
किसी लैंगिक भेद
के करते हैं।
लेकिन उसके बाद
यह कानून यौन
शोषण को स्त्री
से ही जोड़ कर देखता
है। क्या यह संविधान की उस मूल भावना
की उपेक्षा नहीं
है, जिसके अनुसार
समाज में सभी को बिना
किसी लिंग भेद
के न्याय प्राप्त
करने का अधिकार
है? पुरुषों के
साथ यौन शोषण
का कानून वैसा
ही सख्त होना
चाहिए, जैसा महिलाओं
के साथ रेप के मामले
में है। अभिभावकों
को अपनी बेटियों
के साथ ही बेटों को
लेकर भी सचेत रहना होगा।
बचाव के तरीके
उन्हें दोनों को
समान रूप से बताने होंगे।
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लेखिका: ऋतु सारसवत
लेखिका: ऋतु सारसवत
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