पिछले दिनों मैंने कहीं
पढ़ा कि ‘प्रतिदिन का 1.5 जीबी इंटरनेट डेटा युवाओं को उनकी बेरोजगारी का अहसास नहीं
होने दे रहा है।’
इस गंभीर बात के स्पष्ट रूप से दो पहलू हैं। एक तरफ देश में तेजी से बेरोजगारी बढ़ रही
है तो दूसरी तरफ युवाओं की एक बड़ी संख्या साइबर एडिक्शन की तरफ बढ़ रही है। फिलहाल देश
की एक बड़ी आबादी इंटरनेट, स्मार्टफोन और सोशल मीडिया के साइबर एडिक्शन का शिकार हो
चुकी है। यह संकट भारत सहित पूरी दुनिया में तेजी से फैलता जा रहा है और अब तो हालात
ऐसे हो गए हैं कि युवाओं में बेरोजगारी सहित देश की वास्तविक समस्याओं के प्रति सोचने
और समझने की क्षमता ही खत्म हो रही है। हाल में हुए फेसबुक डेटा लीक प्रकरण से भी यह
बात साफ हो गई है कि युवाओं के इसी साइबर एडिक्शन का फायदा कैंब्रिज एनालिटिका जैसी
कंपनियां उठा रही हैं। वे युवाओं के व्यक्तिगत आंकड़े अब किसी भी व्यक्ति या संस्था
को बेच रही हैं। • जाति और धर्म
भारत में साइबर एडिक्शन
को लेकर किए गए एक सर्वे के अनुसार 18 से 30 साल के बीच पांच में से तीन युवा ऐसे हैं,
जो अपने स्मार्टफोन के बगैर इस तरह बेचैन होने लगते हैं जैसे उनका कोई अंग गायब हो।
इनमें 96 फीसदी सवेरे उठकर सबसे पहले सोशल मीडिया पर जाते हैं। 70 फीसदी युवाओं का
कहना है कि वे ई-मेल और सोशल मीडिया को चेक किए बगैर जी नहीं सकते। पिछले दिनों दस
देशों के 10,000 लोगों पर वैश्विक प्रबंधन परामर्श कंपनी ए.टी. कियर्नी द्वारा किए
गए शोध में यह बात सामने आई कि 53 फीसदी भारतीय हर घंटे इंटरनेट से जुड़े रहते हैं जो
कि वैश्विक औसत 51 फीसदी से ज्यादा है। इनमें 77 फीसदी लोग सोशल नेटवर्किंग साइटों
पर रोजाना लॉग इन करते हैं। देश में डिजिटल नशे की स्थिति को हम अपने आसपास और घरों
में भी महसूस कर सकते हैं। लोगों को आज आभासी दुनिया में दोस्त बनाने की ऐसी लत लग
गई है कि वास्तविक जिंदगी में कोई रिश्ता स्थापित करना मुश्किल लगने लगा है। वैसे भी
जब व्यक्ति स्मार्टफोन के चक्कर में अपने काम और खाली समय से समझौता करने लगे तो समझिए
कि यह लत की शुरुआत है। इंटरनेट और सोशल मीडिया का बहुत बड़ा सकारात्मक पक्ष यह है कि
इसने संसार को ग्लोबल विलेज बना दिया है और सूचनाओं का आदान-प्रदान भी पलक झपकते होने
लगा है, लेकिन अत्यधिक उपयोग की वजह से आज यह साइबर एडिक्शन की वजह भी बन गया है। युवा
वर्ग सूचनाओं के बोझ से दबा जा रहा है और सोचने-समझने की उसकी क्षमता लगातार कम होती
जा रही है। साथ ही काम में मौलिकता का अभाव स्पष्ट रूप से दिख रहा है। मशहूर लेखक निकोलस
कार ने मन-मस्तिष्क पर इंटरनेट के प्रभाव पर अपनी चर्चित पुस्तक ‘दि शैलोज’ में कहा है, ‘इंटरनेट हमें
सनकी बनाता है, हमें तनावग्रस्त करता है, हमें उस ओर ले जाता है जहां हम इस पर ही निर्भर
हो जाएं।’
पिछले दिनों आई इंटरनेशनल
लेबर ऑर्गनाइजेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2019 तक भारत में 1.89 करोड़ लोग बेरोजगार
होंगे। जबकि साल 2017 में भारत में बेरोजगारों की संख्या 1.83 करोड़ थी। इस समय देश
की 11 फीसदी आबादी बेरोजगार है। इस तरह भारत दुनिया के सबसे ज्यादा बेरोजगारों का देश
बन गया है। श्रम मंत्रालय के श्रम ब्यूरो के सर्वे से भी सामने आया है कि बेरोजगारी
दर पिछले पांच साल के उच्च स्तर पर पहुंच गई है। देश में बेरोजगारी के इन भयावह आंकड़ों
के बावजूद युवाओं में अगर बड़े पैमाने पर बेचैनी नहीं दिखती तो इसकी एक वजह सोशल मीडिया
भी है जहां सरकारों ,राजनीतिक दलों के आईटी सेल द्वारा इन्हें बरगला कर इनका ध्यान
दूसरी तरफ बंटाया जा रहा है। युवाओं की एक बड़ी संख्या को जाति और धर्म के मुद्दों पर
उलझाया जा रहा है जिससे उनकी नजर अपनी बेरोजगारी पर न जाए। ठीक वैसे ही जैसे शरीर के
किसी हिस्से में दर्द होने पर दर्द का जड़ से इलाज करने के बजाय दर्द की दवा या दर्द
का इंजेक्शन देकर मरीज को राहत दी जाए। वैसे यह राहत अस्थाई ही है। जैसे ही कुछ घंटों
में दवा का असर कम होगा फिर से मूल समस्या उभर आएगी।
डिजिटल लत की वजह से
एक पीढ़ी के रूप में भी हम अपने जीवन से नियंत्रण खो रहे हैं। पहले लोग समस्याओं पर
आंदोलन करने के लिए सड़कों पर उतरते थे, लेकिन अब यह ट्रेंड भी सीमित हो गया है और विरोध
प्रदर्शन का केंद्र सड़क के बजाय सोशल मीडिया बन गया है। भारत में बेहद सस्ती दरों में
उपलब्ध डेटा की वजह से कम आय वर्ग वाले लोगों के पास भी स्मार्टफोन उपलब्ध हैं जिसका
सदुपयोग के बजाय कुछ स्तर तक दुरुपयोग भी होने लगा है। एक सर्वे के अनुसार करीब 92
प्रतिशत गरीब किशोर इंटरनेट का प्रयोग कर रहे हैं और 65 फीसद के पास स्मार्टफोन हैं।
वहीं, अच्छी कमाई वाले घरों के 97 प्रतिशत बच्चे इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं और
69 फीसद के पास स्मार्टफोन हैं। कई बार एडिक्शन के शिकार लोगों को पता भी नहीं चलता
कि यह कब उनके वास्तविक जीवन पर हावी हो गया।• खोजा जाए इलाज
दुनिया में नशीले पदार्थों
का कारोबार जिस तेजी से फैल रहा है, उससे कहीं अधिक रफ्तार से लोग सोशल मीडिया की गिरफ्त
में फंस रहे हैं। युवाओं के अलावा बच्चे भी अब डिजिटल लत का शिकार हो रहें हैं। अमेरिका
सहित कई देशों में तो इसके इलाज के लिए बाकायदा क्लीनिक भी खुल गए हैं, लेकिन भारत
जैसे विकासशील देशों में अभी तक इस पहलू पर गंभीरता से सोचा ही नहीं गया है। वक्त आ
गया है जब इसका समाधान तलाशा जाए, नहीं तो युवा शक्ति विकास के बजाय विनाश पर उतारू
हो सकती है।