बिहार के मुजफ्फरपुर
शहर में स्थित
सरकारी बालिका गृह
में असहाय लड़कियां
जो नरक भुगत
रही थीं, उसके
ब्यौरे उजागर होने
के साथ ही हर भारतीय
नागरिक का सिर शर्म से
झुकता जा रहा है। बरसों
से यह सरकारी
बालिका गृह नियम-कानूनों को ठेंगा
दिखाते हुए चलाया
जाता रहा और निगरानी व निरीक्षण
इसके लिए निरर्थक
शब्द ही बने रहे। किसी
भी स्तर पर कभी जरा
सी भनक तक नहीं लगी
कि छोटी-छोटी
बच्चियों को वहां
किस दुर्दशा से
गुजरना पड़ रहा है। इसके
संचालक की ऊंची राजनीतिक पहुंच पूरे
सरकारी तंत्र पर
इस कदर हावी
रही कि न केवल उसका
बालिका गृह का टेंडर सुरक्षित
रहा, बल्कि नए-नए ठेके
भी उसे बेरोक-टोक मिलते
रहे। इस बालिका
गृह की असलियत
का खुलासा टाटा
इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल
साइंसेज (टिस) के
उन छात्रों ने
खोली, जिनकी रिपोर्ट-
संचालकों के मुताबिक-
ध्यान देने लायक
ही नहीं है।
हैरत की बात यह है
कि इस रिपोर्ट
के बाद बालिका
गृह में रह रही लड़कियों
ने जज के सामने बयान
देकर इसकी सच्चाई
पर अपनी मुहर
लगा दी, लेकिन
सरकार के संज्ञान
में होने के बावजूद यह
रिपोर्ट इसी संचालक
को पटना में
भिखारियों के उद्धार
का एक और ठेका हथियाने
से नहीं रोक
पाई। खबर सार्वजनिक
होने के बाद ही इस
ठेके को रद्द किया गया।
समाज में अनाथ
लड़के-लड़कियां, वृद्ध,
अपाहिज आदि अनेक
ऐसे समूह हैं
जो बेहद अमानवीय
स्थितियों में जीवन
बिताने को मजबूर
हैं। मगर जब इनके उद्धार
के नाम पर बनी और
सरकारी पैसों से
चलने वाली संस्थाएं
भी इनके साथ
ऐसा सलूक करने
लग जाएं तो उम्मीद के
लिए कोई जगह ही नहीं
बचती। जब सरकारी
संरक्षण में रह रही सात-आठ साल
की बच्चियों को
भी ‘गंदे काम’
से खुद को बचाने के
लिए अपने आपको
घायल करना पड़े,
तो इस संस्था
का संचालन करने
वाली सरकार के
पास अपने बचाव
में कहने को क्या रह
जाता है/ और हां, ऐसे
मामले सिर्फ एक
शहर या एक राज्य तक
सीमित नहीं हैं।
लिहाजा कम से कम अब
से राजनीतिक गुणा-भाग छोड़कर
निराश्रित बच्चों, खासकर बच्चियों
की देखरेख के
लिए जिम्मेदार देश
की सभी संस्थाओं
के माहौल की
पुख्ता जांच कराई
जाए, ताकि सेक्स
स्लेव बनना उनकी
नियति न बने और हमें
भी इस समाज में जिंदा
रहने पर शर्मिंदगी
न महसूस हो।
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